दोस्तों, आज हम फिर एक ऐसे भक्त की कहानी लाये ही जिसके लिए भगवान् स्वयं आते हैं और अपने गाने आभूषण लुटाते हैं। हम बात कर रहे हैं Bhakt Haripal जी की। जिनकी भक्ति ने स्वयं भगवान को भी अपने आभूषण उनसे लुटाने का मन किया। ऐसे भक्त जो सिर्फ गुरु के कहने मात्र से रोज 1000 से भी ज्यादा संतो को भोजन कराने नियम बना लिया। उनकी भक्ति की कथा पढ़ने मात्र से आप समझ जाएंगे की भक्ति की शक्ति क्या होती हैं।
भक्त हरिपाल जी की कथा (Bhakt Haripal Story)
भक्त हरिपाल जी का जन्म एक साधारण ब्राह्मण परिवार में हुआ था, जहाँ खेती-बाड़ी से अच्छा गुजर-बसर हो जाता था। हरिपाल जी गृहस्थ थे — परिवार, ज़िम्मेदारियाँ और दुनियादारी सब कुछ थी उनके जीवन में। लेकिन उनके मन में एक तड़प थी — बस एक ही चाहत कि किसी भी तरह भगवान के दर्शन हो जाएँ, प्रभु से साक्षात्कार हो जाए।
न तो वे कोई बड़े ज्ञानी थे, न ही विशेष रूप से पूजा-पाठ करते थे। बस यही तड़प थी कि कैसे ठाकुरजी के दर्शन हो जाएँ।
एक दिन उन्हें नगर में आए एक संत के बारे में पता चला — जो बड़े ही ज्ञानी थे, भगवत् ज्ञान से परिपूर्ण। उन्होंने कई शिष्यों को ठाकुरजी के मार्ग पर चलने की प्रेरणा दी और उनके लोक-परलोक सँवार दिए थे।
संत बहुत ही सरल स्वभाव और निर्मल हृदय के भक्त थे। वे मन ही मन हमेशा द्वारिकाधीश का नाम जपते और उनका ही ध्यान करते रहते। उनकी भक्ति और सहजता देख कर हरिपाल जी के मन में विचार आया कि यही संत मुझे भी भगवत् मार्ग दिखाएँगे, क्यों न मैं भी इनसे दीक्षा ले लूँ।
हरिपाल जी ने संत के चरणों में नतमस्तक होकर कहा —
“गुरुदेव! आप तो बड़े ज्ञानी हैं, भगवत् इच्छा और आपकी कृपा हो तो कृपया मुझे भी दीक्षा देकर प्रभु के मार्ग पर चलने की प्रेरणा दीजिए। आप मुझे अपने शरण में लीजिए, ताकि मेरा जीवन भी ठाकुरजी के चरणों की ओर मुड़ सके।”
संत ने विनम्र होकर कहा —
“उठो हरिपाल, आज मुझे समझ आ गया कि मुझे यहाँ क्यों आना पड़ा। प्रभु ने मुझे क्यों इस नगर की ओर आने की प्रेरणा दी थी।”
हरिपाल थोड़े चौंके। उन्हें संत की वाणी पूरी तरह समझ नहीं आई, पर फिर भी वे हल्के से मुस्कुरा दिए। मन में सोचा — “संत हैं, गुरुदेव हैं… कुछ कह रहे हैं तो निश्चित ही अच्छा ही होगा।”
हरिपाल रोज़ संत के सत्संग में जाता, मन लगाकर सत्संग सुनता और फिर घर आकर अपने परिजन, मित्रों और मिलने-जुलने वालों को भी वही बातें सुनाया करता।
बहुत दिन ऐसे ही बीते।
फिर एक दिन, संत के जाने का समय आ गया।
हरिपाल व्याकुल हो उठा। उसने हाथ जोड़ के कहा —
“गुरुदेव, सेवा में कोई कमी रह गई हो तो मुझे क्षमा कीजिए, लेकिन कृपा कर मुझे छोड़कर न जाइए।”
संत ने शांत स्वर में उत्तर दिया —
“हरिपाल, अब मेरे जाने का समय आ गया है। कहीं किसी और भक्त को भी शायद भगवत् मार्ग पर लाना है। मेरा यहाँ का कार्य अब पूर्ण हुआ।”
हरिपाल ने धीरे से कहा —
“गुरुदेव, मैं एक गृहस्थ हूँ, आपके साथ नहीं चल सकता। पर कृपा कर, मुझे ऐसा कोई मार्ग बताइए जिससे मैं गृहस्थ रहते हुए भी भगवान को पा सकूं… उनके दर्शन कर सकूं।”
संत मुस्कराए और बोले —
“हरिपाल, तुम उस मार्ग पर पहले से ही चल पड़े हो।”
हरिपाल थोड़ा चौंके। चेहरे पर एक हल्की-सी उलझन उतर आई।
मन ही मन सोचने लगे —
“मैं तो बस सत्संग सुन रहा हूँ, और संतो की सेवा कर रहा हूँ… लेकिन प्रभु की पूजा तो अभी शुरू भी नहीं की…”
संत उनके मन का भाव पढ़ गए।
थोड़ा और समीप आकर बोले —
“हरिपाल, तुम यहाँ संतो की सेवा जो कर रहे हो — वो भी बिना किसी लालच, बिना किसी दिखावे के — यही तो है सबसे बड़ी पूजा।
तुम बस इसी भाव से रोज़ किसी संत को भोजन कराते रहो।
जो भी संत तुम्हारे द्वार पर आए, वो कभी भूखा न लौटे।
जहाँ संतों का सम्मान होता है, वहाँ आने से भगवान खुद को रोक नहीं पाते।
संतों के पीछे-पीछे प्रभु भी आते हैं — और जहाँ संत प्रसन्न होते हैं, वहाँ प्रभु को भी आना ही पड़ता है…
अब गुरुदेव के नगर से विदा होते ही, हरिपाल ने उनकी आज्ञा का पालन शुरू किया।
जो भी संत नगर में आते, उनके चरण धोता, उनको अच्छा भोजन करवाता, फिर रात में बचा हुआ खाता।
धीरे-धीरे बात फैलती गयी कि अगर संत सेवा देखनी हो, तो हरिपाल के यहाँ देखो — भोजन स्वयं ठाकुरजी का प्रसाद रूप में मिलता है।
इन सब से संतों की संख्या बढ़ गयी।
सैकड़ों संत आने लगे — सभी प्रसन्न होकर जाते और आशीर्वाद देते।
ऐसे करते-करते एक साल, डेढ़ साल बीत गया।
अब संत सेवा में व्यस्त रहने के कारण, खेती-बाड़ी में फसल नहीं लग पाई।
जितना भी धन संचित था, सब खत्म होने लगा।
लेकिन Bhakt Haripal ने संतों की सेवा में कोई कमी नहीं आने दी।
भगवान ने अब लीला रचना आरम्भ की।
संतों की संख्या दिनोदिन बढ़ने लगी — रोज़ हज़ारों की संख्या में संत-साधु आने लगे।
हरिपाल उनकी खूब भाव से सेवा करता रहा।
फिर कुछ एक-डेढ़ साल और बीत गया।
हरिपाल ने अपनी ज़मीन भी बेच दी — मगर संत सेवा नहीं रुकी।
घर के गहने बिक गए — मगर संत सेवा नहीं रुकी।
अब हरिपाल को चिंता सताने लगी कि आगे क्या होगा? कैसे होगी संत सेवा?
उसने कई दुकानों से उधार लेकर सेवा करनी शुरू कर दी।
लेकिन अब उधारी और कर्ज़ इतना बढ़ गया कि दुकानदारों ने भी आगे उधार देना बंद कर दिया।
अब करे तो करे क्या…
हरिपाल को चिंता होने लगी — कि आज तो हो गया, पर कल कैसे होगा?
कैसे मैं संतों की सेवा करूँगा?
पत्नी ने भी कहा — “अब हमारे पास कुछ भी नहीं है…
हम कैसे संतों की सेवा करेंगे?
कुछ जल्दी करो वरना कल हमारा नियम टूट जाएगा।”
हरिपाल ने अब सोचा कि — “भगवान को पाना है तो संतों की सेवा भाव से करनी ही होगी…
और उसके लिए गुरुदेव की कही माननी ही होगी।”
सोचते-सोचते हरिपाल ने द्वारिकाधीश को याद किया —
और उसी क्षण उसे कहीं से माखन की महक आने लगी।
हरिपाल मुस्कुराया —
“जब हमारे द्वारिकाधीश बालपन में चोरी कर सकते हैं —
माखन की — जिसे वो अपने मित्रों और वानरों में बाँट देते थे…
तो क्यों न मैं भी चोरी शुरू कर दूँ?
कम से कम संत सेवा तो नहीं रुकेगी!”
बहुत सोचने के बाद हरिपाल ने यह पक्का किया — कि जिस घर में भजन होता हो, जो तिलकधारी हो,
जिस घर में ठाकुर की पूजा होती हो — उस घर में नहीं जाना है।
धन नहीं — सिर्फ भोजन सामग्री ही चुरानी है — ताकि संतों की सेवा हो सके।
अब हरिपाल दिन में गली-मोहल्लों में घूमते —
ध्यान से देखते कि कौन भगवान का नाम नहीं लेता,
कौन तुलसी की कंठी नहीं पहनता,
किसके घर में सेवा-पूजा नहीं होती —
और रात में उन्हीं घरों से थोड़ी-सी सामग्री चुपचाप ले आते —
और संतों को प्रेम से खिलाते।
कई दिनों तक ऐसा ही होता रहा।
फिर नगर में भी बातें फैलने लगीं —
“हरिपाल जी के यहाँ तो अब कोई जरिया भी नहीं है,
फिर भी वो इतनी सेवा कैसे कर रहे हैं?”
लोग दबे मुँह बातें करने लगे —
किन्तु हरिपाल के भक्त भाव और नियम-निष्ठा को देखकर
कोई भी उनसे कुछ कह नहीं पाता।
एक रात हरिपाल जी नगर में घूमते हुए एक व्यापारी का घर देखकर ठिठक गए।
घर के दरवाज़े पर न तो कोई तुलसी का चौरा था, न ही कोई तिलकधारी नज़र आया, न कंठी, न कोई भजन की आवाज़ — हरिपाल जी समझ गए कि यह घर सेवा की दृष्टि से उपयुक्त है।
उन्होंने मन ही मन निश्चय कर लिया —
“आज की संत सेवा के लिए जो भी सामग्री चाहिए, वह यहीं से मिलेगी।”
रात होते ही हरिपाल जी चुपचाप उस घर में प्रवेश कर गए।
घर एकदम शांत था, लेकिन जैसे ही वो रसोई की ओर बढ़े — अचानक एक हल्की-सी आवाज़ हुई।
उस आवाज़ से व्यापारी की बेटी की नींद टूट गई। डर के मारे वह जल्दी से अपने पिता के पास पहुँची और बोली —
“पिताजी! लगता है घर में कोई चोर घुस आया है।
हमें तुरंत दरवाज़ा खोलकर आस-पास के लोगों को बुला लेना चाहिए!”
यह सुनते ही हरिपाल जी डर के मारे एक कोने में छिपकर साँस रोककर बैठ गए।
व्यापारी, जो अब तक नींद में था, हड़बड़ा कर उठ गया, लेकिन बेटी के विपरीत वह कुछ विचित्र भाव से मुस्कुराया और बोला —
“चुप हो जा बेटी… ज़रा भी शोर मत करना…
आज शायद हमारे भाग्य का उदय होने वाला है।”
बेटी यह सुनकर चौंकी।
उसने विस्मित होकर पूछा —
“पिताजी! आप ये कैसी बातें कर रहे हैं?
एक चोर हमारे घर में घुस आया है और आप इसे भाग्य उदय कह रहे हैं?”
पिता ने अपनी आवाज़ धीमी करते हुए कहा —
“बेटी… हमारे नगर में एक ही ऐसा चोर है,
जो चोरी कर अपनी सारी सामग्री संतों की सेवा में लगाता है।
और अगर हमारा सौभाग्य हुआ, तो वो आज हमारे घर आया होगा।”
बेटी ने आश्चर्य से धीमे स्वर में पूछा —
“हरिपाल काका?”
पिता ने सिर हिलाते हुए कहा —
“हाँ… वही होंगे।
हरिपाल जी के आने मात्र से यह घर धन्य हो गया।
हमने तो कभी संतों की सेवा में कुछ अर्पण नहीं किया,
शायद भगवान ने ही हरिपाल जी को हमारे यहाँ भेजा है —
ताकि कम से कम हमारी भोजन सामग्री ही संत सेवा में लग जाए।”
हरिपाल जी, जो अब तक एक कोने में छिपे थे, यह सारी बातचीत सुन चुके थे।
उनका मन भीतर से भर आया —
आँखों से अश्रुधारा बहने लगी।
वो सोच में डूब गए —
“हे प्रभु! यह तो आपके गुप्त भक्त निकले।
अगर मैं इन जैसे अनगिनत भक्तों के यहाँ से सामग्री चुराता रहा,
तो न जाने अब तक कितने अपराध कर चुका हूँ…
यह तो किसी तपस्वी का हृदय है — और मैं अनजाने में इस भाव को लूटने चला था।”
उस गहन पश्चाताप और ग्लानि के भाव में,
उन्होंने वही चादर — जिसमें सामग्री बाँध रखी थी —
बिना कोई वस्तु लिए, उसी स्थान पर छोड़ दी और चुपचाप वहाँ से लौट गए।
जब सब कुछ शांत हो गया,
तो व्यापारी और उसकी पुत्री बाहर आए।
उन्होंने देखा — एक चादर वहाँ पड़ी है,
जिसमें भरपूर सामग्री रखी है — लेकिन कोई व्यक्ति नहीं।
व्यापारी का हृदय भाव से भर आया।
उसने उस चादर को उठाया,
और जैसे कोई अपने ईश्वर को आलिंगन करता है —
वैसे ही उसने उस चादर को सिर से लगाकर प्रणाम किया।
फिर वह भावविभोर होकर बेटी से बोला —
“बेटी… यह कोई साधारण वस्त्र नहीं है।
यह किसी संत की सेवा की साक्षी है।
इसे सहेजकर रखना — यह घर के लिए वरदान बनकर आई है।”
अब हरिपाल जी रात्रि में ही घर गए और पत्नी से बोले कि अब मुझे लगता है कि कल हम संत भोजन नहीं करवा पाएंगे। पत्नी ने अपने पति को यूँ चिंतित होता देखा।
हाथ जोड़ द्वारिकाधीश को याद किया। हरिपाल फिर माखन की मटकी फूटने का आभास हुआ। पत्नी ने कहा शायद मटकी फूट गई है मैं देख कर आती हूँ।
हरिपाल जी फिर सोचने लगे कि मटकी तो द्वारिकाधीश ही फोड़ सकते हैं जैसे वो बचपन में रास्ते में घात लगाकर गोपियों और सखियों की मटकी फोड़ा करते थे।
पत्नी वापस आई उससे पहले ही वो वहाँ से आधी रात को जा चुके थे।
अब वो भोर होने का इंतज़ार एक पेड़ के पीछे छिपकर करने लगे कि कहीं कोई राहगीर आए तो उसे ही लूट लूँ। और हुआ भी ऐसा ही — एक राहगीर आया, उन्होंने उसे लूटा, दूसरा आया, उन्होंने उसे बीच रास्ते लूट लिया।
इस तरह ठाकुर जी की कृपा से आज के दिन सेवा और भोजन का कार्य हो जाएगा।
ऐसे करते-करते कई दिन बीत गए। जो भगवान का नाम जाप करता, कंठी वाला और तिलक वाले यात्रियों को छोड़ देते।
सब जगह बात फैल गई कि कोई लुटेरा भगवान के नाम लेने पर नहीं लूटता, तो लोग अब वहाँ से गुजरते-गुज़रते भजन करने लगे — हरे राम हरे राम, राम राम हरे हरे! हरे कृष्णा हरे कृष्णा, कृष्णा कृष्णा हरे हरे!, राधे कृष्णा राधे कृष्णा, जय श्रीराम, जय सीताराम, जय श्रीकृष्ण जैसे भजन और नाम जाप से आगे बढ़ने लगे।
अब फिर हरिपाल जी को चिंता होने लगी कि भगवान के नाम लेने वाले को नहीं लूट सकता है।
सुबह-सुबह ब्रह्म मुहूर्त की बेला थी। संतों का एक छोटा सा दल हरिपाल जी के द्वार पर आ खड़ा हुआ।
हरिपाल जी भीतर बैठे, माथा पकड़े — चिंता में डूबे थे।
“आज भोजन कहाँ से आएगा ठाकुर?”
पर अंदर कहीं ये भी जानते थे — “जिसका भरोसा है, वो खाली हाथ नहीं लौटने देगा…”
उधर, द्वारका के महल में आज कुछ अलग ही हलचल थी।
श्यामसुंदर खुद शीशे के सामने खड़े, बाल संवार रहे थे।
कभी काजल लगाते, कभी मुकुट को तिरछा करते।
रुक्मिणी जी ने देखा तो हँसी छूट गई —
“प्रभु, आज कौन-सी गोपी को देखने जा रहे हैं जो इतनी साज-सज्जा में लगे हैं?”
भगवान मुस्कराए, पर नज़रों में एक मासूम शरारत थी —
“आज गोपी नहीं, एक चोर भक्त से मिलने जा रहा हूँ… लेकिन ऐसा चोर, जो मुझे भी लूट ले गया है!”
रुक्मिणी जी की भौंहें तन गईं —
“हमें बताए बिना आप अकेले जाएंगे?”
भगवान बोले —
“साथ चलो, लेकिन आज हम राजा-रानी नहीं… सेठ-सेठानी हैं। और सुनो, वहाँ कोई ‘जय श्री कृष्ण’ नहीं बोलेगा, वहाँ सिर्फ व्यापार की बातें होंगी।”
रुक्मिणी जी मुस्कराईं, लेकिन दिल में थोड़ी जलन भी थी —
“कैसा भक्त है जो नाम-संकीर्तन नहीं चाहता?”
प्रभु ने पास आकर कहा —
“वो चाहता तो है… लेकिन चोरी में नहीं, सेवा में।”
इसके बाद जो हुआ वो कमाल था।
प्रभु खुद रुक्मिणी जी का श्रृंगार करने लगे।
सबसे कीमती हार, झुमके, कंगन और पायल पहनाई गई।
रुक्मिणी जी नखरे भी कर रही थीं —
“ये हार भारी है… ये बाली चुभ रही है…”
प्रभु मुस्कराते हुए बोले —
“जिसे हरिपाल को दिखाना है, उसे तो थोड़ी मेहनत करनी ही पड़ेगी!”
रुक्मिणी जी खिलखिला पड़ीं —
“भक्त तो बहुत भाग्यशाली निकला प्रभु, जिसके कारण आज आपने मेरे हाथों में चूड़ियाँ पहनाई हैं…”
इधर श्रृंगार पूरा हुआ, उधर प्रभु ने अपना रूप भी बदल लिया।
अब वे न द्वारिकाधीश दिखते थे, न चक्रधारी नारायण —
बल्कि सिर पर सेठों वाली पगड़ी, गले में हीरे-जवाहरात, और चाल में वही आत्मविश्वास —
रुक्मिणी भी अब रुक्मिणी नहीं, बनी थीं एक ठसकदार सेठानी —
जो अंदर से जानती थी, “प्रभु के साथ जाना है… भले ही नाम छिपा हो, पर प्रेम तो पहचान से परे होता है…”
और फिर रथ निकला…
सेठ और सेठानी के वेश में…
जैसे ही हरिपाल जी के घर के समीप रथ पहुँचा — वह अदृश्य हो गया। अब सेठ और सेठानी पैदल ही चलते हुए आगे बढ़े।
उधर, हरिपाल जी अपने घर के बाहर खड़े होकर रास्ता निहार रहे थे — कि कहीं कोई बिना भजन, बिना तिलक, बिना नामजप वाला प्राणी दिख जाए तो आज सेवा का सामान उससे ही जुटाया जाए।
लेकिन तभी… उनकी आँखें चौंधिया गईं।
एक सेठ दूर से चला आ रहा था — पूरे शरीर पर गहनों का पहाड़ लादे जैसे कोई चलते-फिरते खजाना ही हो!
हरिपाल जी के मन में तुरन्त सोचा —
“अगर इसे लूट लूँ, तो कम से कम दस साल तक मुझे कोई और काम नहीं करना पड़ेगा — बस संत सेवा, ठाकुर का भजन और आनंद ही आनंद!”
और ऊपर देख कर बोले —
“वाह द्वारिकाधीश! आज तो तूने बड़ी कृपा कर दी!”
अभी सेठ को और गौर से देखा ही था कि उसके पीछे-पीछे एक सेठानी भी चली आ रही थीं — ऐसी आभा, ऐसा सौंदर्य जैसे स्वयं लक्ष्मीजी सड़क पर चलने आ गई हों!
हरिपाल जी बड़बड़ाए —
“अरे! अब तो दस नहीं बीस साल तक मुझे चिंता करने की ज़रूरत नहीं! आज तो ठाकुरजी ने सीधे वैकुण्ठ की झलक ही भेज दी है…”
और मन ही मन हाथ जोड़कर बोले —
“जय द्वारिकाधीश!”
जैसे ही सेठ पास पहुँचे, हरिपाल जी तो आनंद में मगन होकर फिर से बोले —
“जय द्वारिकाधीश!”
सेठ एकदम झल्ला उठे —
“अरे ओ! ये क्या सुबह-सुबह भगवान का नाम लेकर शोर मचा रहा है?
हम यहाँ नए हैं, और हमें आगे एक जंगल पार करना है।
सुना है इस इलाके में एक बड़ा लुटेरा है —
अगर तू हमारी मदद करेगा, तो मेहनताना देंगे।
लेकिन हमें इस नगर और जंगल के रास्ते से सुरक्षित निकालना पड़ेगा!”

हरिपाल जी मंद मुस्कराए —
“जय…”
सेठ फिर गुर्राए —
“अबे चुप! बार-बार क्यों जय-जय कर रहा है?
हम व्यापार की बात कर रहे हैं और तू बीच में भगवान के नाम की रट लगाए जा रहा है!
हमारी सेठानी को यह सब पसंद नहीं!”
हरिपाल जी मन ही मन बोले —
“अच्छा! तू बड़ा सयाना व्यापारी बन रहा है?
मुझे ठाकुर का नाम लेने से रोकता है?
आज तुझे ही ठाकुर की भेंट बना दूँगा —
तू अपने इन गहनों की आखिरी बार झलक देख ले।
उंगली की अंगूठी भी नहीं बचेगी आज!”
पर ऊपर से सिर हिलाते हुए बोले —
“जय…”
सेठ तिरछा होकर बोले —
“हम्म्म…”
हरिपाल जी बोले —
“मेहनताना पहले देना होगा, मेरे घर कुछ संत आए हैं — उनके लिए भोजन की व्यवस्था करनी है।”
सेठ बोले —
“क्यों? तू क्या कोई संत है?
या तू भी उस हरिपाल जैसा ही पाखंडी है — जो सबको लूटकर खुद खा जाता है?”
हरिपाल जी मुस्कराकर बोले —
“तुम्हें मेरी बात जँचती है तो चलो, वरना आगे जाओ…
गाँव के बाहर हरिपाल खड़ा मिलेगा —
फिर उसी के हाथों लुट जाना!”
प्रभु मन ही मन मुस्कराए —
“अरे वाह! ये तो खुद हरिपाल होकर… मुझे ही हरिपाल का डर दिखा रहा है!”
रुक्मिणी जी कान में धीमे से बोलीं —
“नाथ! अब जल्दी चलिए — व्यापार भी तो करना है!”
और मंद-मंद मुस्कराने लगीं।
सेठ ने झोली से कुछ राशि निकालकर हरिपाल जी को दे दी।
हरिपाल जी तुरन्त घर लौटे और पत्नी से बोले —
“जल्दी से बाज़ार से सामान ले आओ और संतों को बालभोग लगा देना।
तब तक मैं इन ‘सेठ-सेठानी’ को छोड़कर आता हूँ।”
पत्नी ने धन लेकर निकलते ही — हरिपाल जी ने एक चादर और बड़ी सी लकड़ी उठा ली।
सेठ ने आश्चर्य से पूछा —
“इतनी मोटी लकड़ी क्यों ले रहे हो?
ये तो बड़ी भयंकर लगती है!”
Bhakt Haripal जी बोले —
“सुरक्षा भी तो करनी है न!
अगर हरिपाल ने रोक लिया,
तो उससे निपटने के लिए ये डंडा ही काम आएगा!”
सेठ डरते-डरते बोले —
“एक-आध लकड़ी और रख लो न…
कहीं ये टूट गई तो फिर हम क्या करेंगे?
वो हरिपाल बड़ा हट्टा-कट्टा है!”
गाँव पार करते ही सेठ और सेठानी व्यापार की बड़ी-बड़ी बातें करने लगे।
“फलाना नगर में पहुँचते ही गहने बेच देंगे, वहाँ से सोना लेंगे…
फिर अमुक शहर में रेशम का व्यापार करेंगे…”
जैसे कोई बाज़ारिया लिस्ट पढ़ रहा हो — बस नाम ही बाकी थे!
बीच-बीच में सेठ हरिपाल जी की ओर मुड़कर कहते —
“भाई… वो हरिपाल जिस गाँव से निकले हैं, वो कहीं पीछा न कर ले!
तू जरा पीछे देख ले, कहीं वह आ तो नहीं रहा?”
थोड़ी देर बाद फिर बोले —
“कहीं हरिपाल चालाकी से आगे न निकल गया हो…
सुनो… लगता है हरिपाल कहीं आगे ही झाड़ियों में छुपा बैठा हो!”
हरिपाल जी मन ही मन मुस्कराए और सोचे —
“जितनी बार तूने मेरा नाम लिया है न सेठ,
अगर उतनी बार ठाकुर का नाम जप लेता,
तो आज लुटने से बच जाता!”
जैसे ही वे घने जंगल में पहुँचे —
हरिपाल जी ने ज़ोर से गुर्राकर चादर ज़मीन पर फेंकी
और भाला तानकर बोले —
“सेठ! सारे गहने नीचे रख दे…
मैं ही हरिपाल हूँ!”
सेठ काँपते हुए वहीं धराशायी हो गया।
उधर, रुक्मिणी जी मन ही मन मुस्कराकर बोलीं —
“वाह नाथ… आज आपको तो बड़ा भय लग रहा है!
रावण, कंस, पूतना… किसी से नहीं डरे,
पर हरिपाल से डर के आपके श्रीमुख से शब्द ही निकलना बंद हो गए हैं!”
भगवान हल्के से मुस्कराए —
**”देवी! इन्हीं की वजह से तो आज मैं ‘ठाकुर’ कहलाता हूँ।
भक्तों से कौन जीत सका है?
पूरी सृष्टि में यदि मैं किसी से डरता हूँ —
तो वह मेरे भक्त ही हैं।
महादेव भी जिनसे नहीं भिड़ते,
वहाँ यह नटखट कान्हा क्या ही कर पाएगा!
हम तो इनके अधीन हैं देवी…
भक्त जो चाहें वही विधि बन जाए!”**
उधर, हरिपाल जी गरजते हुए बोले —
“सेठ! तूने मेरे ठाकुर का नाम लेने से मुझे रोका!
अब तेरे एक-एक गहने उतरवाऊँगा!
पूरे रास्ते तूने मेरा चैन छीना,
और मेरे प्रभु के नाम पर टोकता रहा!”
“अगर एक बार भी तू ‘जय श्रीकृष्ण’ कह देता,
तो शायद एक अंगूठी छोड़ देता…
पर अब तो तुझसे कुछ नहीं बचेगा!”
सेठ काँपते हुए सेठानी को कोहनी मारकर बोला —
“देवी… डरना है तुम्हें भी… अब बोलो!”
सेठानी मंद-मंद मुस्कराईं और बोलीं —
“जैसी नटसम्राट की इच्छा!”
फिर थोड़ी घबराकर धीरे से सेठ के पीछे खड़ी हो गईं।
धीरे धीरे ठाकुरजी एक एक आभूषण निकाल निकाल कर चादर पर रखते और डरने का नाटक करते। अब जब सब आभूषण निकल गए तो बोले हरिपालजी अब हमारे पास कुछ नहीं हैं।
इतने में हरिपाल जी बोले की सेठजी तुम बनिया हो बुद्धि न चलाओ छोटी सी उंगली की अंगूठी निकालो।
सेठजी बोले की यह नहीं निकल रही हैं। तो हरिपाल जी बोले नहीं नहीं नहीं वो तो देंनी ही पड़ेगी उस अंगूठी के मोल से ही 10 दिन जितने संतो का भोजन हो जाएगा।
और जब तूने मुझे ठाकुर का नाम लेने से रोका था तभी सोच लिया था की तुझे तो पूरा ही लूट कर छोडूंगा मैं।
जब बहुत जतन करने पर भी नहीं निकली तो हरिपाल जी बोले की ऐ सेठ तू बड़ा धनि हैं तुझे इस छोटी उंगली का क्या काम इसको काट देते हैं।
सेठ बोले नहीं नहीं उंगली नहीं काटने दूंगा और हाथ पिछे कर लिया। हरिपाल ने जैसे ही चाक़ू उठाया और कहा —
“अगर मेरे ठाकुर के संत भूखे रहें
तो हाँ… एक नहीं, सौ उंगलियाँ भी चढ़ा दूँ!”
इतना सुनते ही…
सेठ मुस्कराने लगा।
सेठानी ने हाथ जोड़ दिए।
और…
चारों ओर जैसे नटवर का रंग बिखर गया।
आकाश से हल्की मुरली की धुन सुनाई दी…
गंधर्वों ने पुष्पवृष्टि शुरू कर दी…
सेठ और सेठानी की छवि जैसे बदलने लगी —
और हरिपाल की आँखों के आगे जो दृश्य आया,
उसे देखकर वो थरथरा गए।
सेठ, अब द्वारिकाधीश बन चुके थे —
चक्र-सुदर्शन, पीताम्बर, मोरपंख…
और सेठानी —
रुक्मिणी देवी के रूप में प्रकट हुईं।
Bhakt Haripal वहीं गिर पड़े…
रोते हुए, काँपते हुए…
भक्त और भगवान आमने-सामने थे!
हरिपाल बोला —
“प्रभु! आपने तो कह दिया था,
‘संत सेवा में रहो…
तो एक दिन मैं खुद दरवाज़े आऊँगा।’
पर आप लूटवाने आए, ये तो बताया नहीं था!”
भगवान मुस्कराए —
“हरिपाल… तू जितना लूटता गया,
मैं उतना तुझसे बँधता गया।
तेरा भक्ति का अंश, मेरी लीला बन गई!”
रुक्मिणी जी भी हँसते हुए बोलीं —
“भक्त बड़ा नाटकबाज़ है प्रभु…
परंतु सत्य यही है कि
आपकी मुरली से ज़्यादा मोहक इनकी ‘संत सेवा’ है!”
प्रभु बोले —
“आज तुझसे मिलने का समय आ गया था…
और मैं नहीं आता,
तो मेरी मुरली, मोरपंख, और मंदिर — सब व्यर्थ थे!”
ठाकुरजी ने Bhakt Haripal को गले लगा लिया आज हरिपाल अपना जीवन सार्थक कर चूका था।
हरिपाल क्षमा मांगते हुए बोले की प्रभु क्षमा कर दीजिये मैंने चोरी जैसा पाप किया हैं।
भगवान् बोले – हरिपाल तुम तो मेरे परम और सभी के लिए आदरणीय हो तभी तो तुम्हारी उपस्थिति महसूस होकर भी उस दिन तुम्हे चोरी करते हुए वह दुकानदार पकडने नहीं आया।
तुमने चोरी जरूर की हैं लेकिन एक भी दिन तुम्हारा मन नहीं डगमगाया, तुमने सारी राशि हर दिन सिर्फ संतो की सेवा में लगा दी साथ ही जिन्होंने दान नहीं दिया उसके यहाँ भी चोरी करके उनको संतो की सेवा का लाभ दिलवा कर स्वर्ग का अधिकारी बना दिया।
मैं बहुत प्रसन्न हु तुम पर क्या वर चाहिए बोलो – हरिपालजी बोले प्रभु जिसको आप स्वयं मिल गए हो उसको अब इस ब्रम्हांड के लौकिक वस्तुओं का क्या मोह।
रुक्मिणीजी बोली – हरिपाल आज से यहाँ आभूषण तुम्हारे लिए 20 वर्ष तक नहीं कित्नु जब रहोगे कभी संत सेवा में बढ़ा नहीं आएगी।
इतना कहने के बाद प्रभु और रुकमणीजी अंतर्ध्यान हो गए। Bhakt Haripal अपने ठाकुर का नाम लेते लेते घर पहुंच फिर संत सेवा में लग गए।
जितने निराले हमारे प्रभु श्याम सुन्दर हैं उनसे ज्यादा निराले उनके भक्त होते हैं। हमें उम्मीद हैं आपको ये भक्त और भगवान की ये कथा पसंद आयी होगी। हम आगे भी आपके लिए ऐसे उनके भक्तो की कहानी लाएंगे जिससे आपको भक्ति के सर्वोच्च भाव का पता चलेगा की प्रभु सिर्फ परीक्षा ही लेना नहीं जानते जबकि भक्त की भक्ति भी करते हैं उनसे जितना प्रेम भक्त करते हैं वो उससे कई अधिक किसी न किसी लीला के माध्यम से वापस भी करते हैं।
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