दोस्तों, आप ने जगन्नाथ रथ यात्रा (Jagannath Rath Yatra 2025) तो कई बार सुना होगा, लेकिन क्या आप इसका इतिहास जानते हैं ? अगर नहीं तो हम आपको बताते है लेकिन उससे पहले हम भगवान जगन्नाथ के प्रकट होने की कथा बताते हैं
दोस्तों, जैसा की हम सभी जानते हैं, हर साल ओडिशा के पूर्वी तट पर स्थित देव नगरी जगन्नाथपुरी में भव्य रथयात्रा का उत्सव बड़े ही पारंपरिक रीति के साथ बड़े से हर्ष से आयोजित किया जाता है। इस अवसर पर भगवान श्री जगन्नाथजी, श्री बलदेवजी और बहन श्री सुभद्राजी को मंदिर से बाहर लाने के बाद सभी को अपने अपने विशाल रथ पर बिठाया जाता हैं।
रथ पर भगवान को बिठाने के बाद भक्त इन रथों को खींचकर गुण्डिचा मंदिर तक ले आते हैं, जहां श्री जगन्नाथजी, श्री बलदेवजी और श्री सुभद्राजी 1 हप्ते तक विश्राम कर वापस श्री जगन्नाथ मंदिर (Jagannath Temple) लौट जाते हैं।
इस रथयात्रा का बहुत ही अच्छा उद्देश्य यह है कि वे भक्त, जो सालभर मंदिर में प्रवेश नहीं पाते हैं, उन्हें भगवान के दर्शन प्राप्त हो। ये तो सर्वविदित कारण हैं। लेकिन इसका एक गूढ़ रहस्य श्री चैतन्य महाप्रभुजी ने बताया है। श्री जगन्नाथ मंदिर (jagannath Mandir Dwarka )द्वारका और गुण्डिचा मंदिर वृंदावन के प्रतीरूप माना जाता है।
Jagannath Rath Yatra Story : भगवान जगन्नाथ की कथा
पुरुषोत्तम एवं स्कंदपुराण महात्म्य में बताया गया है की प्राचीनकाल में एक नगरी थी अवंती (उज्जैन) जिनमे इन्द्रद्युम्न नाम के राजा राज्य किया करते थे। जिनकी पत्नी थी रानी गुण्डिचा। कोई संतान नहीं होने पर भी उन्होंने इसे भगवान की कृपा मानी लेकिन रानी के हृदय में भगवान के साक्षात् दर्शन की प्रबल इच्छा जाग्रत हुई।
अपने राज्य में आने वाले सभी तीर्थयात्रियों के लिए महल में अतिथिगृह बनाया गया और उनके आदर-सत्कार के दौरान ही रानी और राजा को श्री विग्रह नीलमाधव के बारे में पता चला की उनके दर्शनमात्र से इस संसार से मुक्ति और मोक्ष की प्राप्ति हो जाती है।
यह सुनकर राजा और रानी के मन में नीलमाधव के दर्शन की तीव्र इच्छा जाग उठी और तुरंत ही राजा इन्द्रद्युम्न ने कुलपुरोहित के ज्ञानवान पुत्र विद्यापति एवं राज्य के अन्य कर्मचारियों और सेनापतियों को अलग – अलग दिशा में जाकर श्री विग्रह नीलमाधव को ढूंढने का आदेश दे दिया एवं 3 महीनो में लौट आने को कहा। 3 महिनो के बाद विद्यापति के अलावा सभी कर्मचारी और सेनापति असफल और खाली हाथ लौटकर आ गए।
जहाँ एक ओर विद्यापति नीलमाधवजी के श्रीविग्रह को ढूंढते हुए लगातार यात्रा कर रहा था। उसी दौरान एक समृद्धशाली गांव पहूँचा और गॉव प्रधान विश्वावसु के यहां अतिथि बनकर ठहर गय। इसी दौरान प्रधान पुत्री ललिता और विद्यापति दोनों में प्रेम हुआ। विद्यापति ने ललिता विवाह कर लिया। विद्यापति कई दिनों से लगातार देख रहा था कि विश्वावसु हर दिन जब भी बाहर से आते है तो उनके पास से एक तरह की अद्भुत सुगंध आती है।
विद्यापति ने इस बारे मे कई बार अपनी पत्नी ललिता से पूछा किन्तु ललिता लगातार कई दिनों तक यह कहकर टालती रही कि पिताजी ने यह रहस्य किसी से भी नहीं बताने के लिए कहा है। तभी विद्यापति चालाकी करते हुए बोला कि पति-पत्नी को आपस में कोई बात छिपानी नहीं चाहिए। तब ललिता ने बताया कि उनके पिता नीलमाधव के श्री विग्रह की पूजा करने जाते हैं। तभी विद्यापति ने भी नीलमाधव के दर्शन की इच्छा व्यक्त कर दी।
तब ललिता ने अपने पिता विश्वावसु से अपने पति विद्यापति को साथ ले जाने की प्रार्थना की एवं न ले जाने पर आत्मादाह की बात कही। यहाँ विश्वावसु को चिंता थी कि कही अनाधिकृत व्यक्ति को वहां ले जाने पर नीलमाधव अंतर्ध्यान हो गए तो मैं खुद को कैसे क्षमा कर पाऊंगा?
अब एक तरफ था पुत्री मोह में फंसा पिता और दूसरी ओर अपने भगवान से विरह की आशंका परन्तु फिर भी उसने ललिता की बात मानकर कहा की में विद्यापति को ले जाऊंगा परन्तु मेरी भी एक शर्त है कि मैं उसकी आँखों पर पट्टी बांधकर ले जाऊंगा और दर्शन के बाद फिर पट्टी बांधकर ले आऊंगा ताकि उसे रास्ते का पता न चले।
यहाँ विद्यापति को इसका पता चलते ही उसने योजना बना ली और बैलगाड़ी पर बैठते समय उसने सरसो की पोटली रखली अब सारे रास्ते वह पोटली से एक-एक दाना गिराते रहा। जिससे वह उसके पौधों बनने के बाद अकेला जा सके। मंदिर पहुंचते ही उसकी पट्टी खोल दी और सामने विद्यापति को नीलमाधव के दर्शन हुए। नीलमाधव शंख, चक्र, गदा और पद्म धारण कर विराजमान थे।
अब नीलमाधव के दर्शन कर विद्यापति पूरी तरह से संतुष्ट हो गए। इसी बीच जब विश्वावसु भूल से कुछ पूजन लाना भूल गये तो वे पूजन सामग्री लेने बाहर गए। उनके जाने के बाद विद्यापति भी बाहर जाकर एक सरोवर के पास टहलने लगे। तभी एक कौआ पेड़ की डाल से सीधे सरोवर में गिर पड़ा और प्राण त्याग दिए एवं उसने मरने के बाद संदर चतुर्भुज रूप धारण कर लिया। उसी समय गरुड़जी वहां आये और उसे बैठाकर बैकुंठ ले गए।
विद्यापति ने सोचा कि एक साधारण कौआ की सिर्फ इस सरोवर में गिरने भर से श्रेष्ठ गति हुई, क्यों न मैं यहीं भी यही प्राण त्यागकर में भी बैकुंठ चला जाऊं? तभी गरजते हुए आकाशवाणी हई कि बैकुंठ जाने के लालच और लोभ में आत्मदाह का प्रयास मत करो। तुम्हें इस जगत के हित के लिए कई महत्वपूर्ण कार्य करने है, तुम शीघ्र राजा इन्द्रद्युम्न के पास जाकर उन्हें नीलमाधव के यहां होने की खबर दे दो।
उसी रात नीलमाधव ने सपने में विश्वावसु से कहा कि अब तुमने बहुत समय तक मेरी सेवा की हैं और मैं तुमसे बहुत अधिक संतुष्ट भी हूं परन्तु अब मैं मेरे भक्त राजा इन्द्रद्युम्न से सेवा ग्रहण करने की चाह रखता हूं। अब भक्त विश्वावसु बहुत विचलित हो गये और प्रभु से दूर होने की कल्पना मात्र से ही परेशान और भयभीत हो उठे।
इधर जब विद्यापति ने अवंती नगर जाने की सूचना दी तो विश्वावसु ने विद्यापति को एक कमरे में ही बंद कर दिया, परंतु पुत्री के समझाने पर विद्यापति को मुक्त कर उन्हें अवंती की ओर प्रस्थान करने और महाराज को सूचित करने की आज्ञा दे दी।
अब राजा इन्द्रद्युम्न हर्षोउल्लास के साथ सेना, प्रजा के साथ सरसों के पौधों से बने निशान से नीलमाधव मंदिर पहुंचे, लेकिन सब ने देखा कि मंदिर में नीलमाधव नहीं है। राजा ने सोचा कि विश्वावसु ने उन्हें गांव में कही छिपा दिया होगा। क्रोध में आकर राजा ने विश्वावसु सहित सभी शबर लोगों को बंदी बनाने आदेश दे दिया एवं निराश होकर मन में नीलमाधव का स्मरण कर प्राण त्यागने का प्रण करने ही वाला था की इतने में आकाशवाणी हुई कि राजन, शबर लोगों को अभी मुक्त कर दो।
चूँकि विद्यापति ने (मेरी)नीलमाधव के विग्रह की खोज मेरे प्रिय भक्त के साथ धोखा कर की है अतः में तुम्हें अब नीलमाधव रूप में दर्शन नहीं दूंगा और तुम्हे कुछ समय मेरी प्रतीक्षा करनी होगी। परंतु तुम और रानी दोनों ही मेरे अनन्य भक्त हो इसलिए मैं अब जगन्नाथ, बलदेव, सुभद्रा और सुदर्शन चक्र के रूपों में प्रकट होकर तुम्हे दर्शन दूंगा।
अब तुम सभी जाकर महासागर के निकट बंकिम मुहाना (चक्रतीर्थ) के समीप मेरी प्रतीक्षा करो। मैं दारूबह्न (लकड़ी में भगवन का रूप) के रूप में सागर में आऊंगा। मैं एक विशाल और अति-सुगंधित लाल वृक्ष की लकड़ी के रूप में प्रकट होने वाला हूँ। उस पर मेरे शंख, मेरे चक्र, गदा व पद्म चिह्न होंगे। उस दारूबह्म को निकालकर तुम उससे चार तरह की विग्रह बनवाकर मंदिर में स्थापित कर देना तथा उसकी ही पूजा-अर्चना करना।
राजा ने अब विग्रहों की स्थापना हेतु भव्य मंदिर का निर्माण करवाया। समुद्र में लाल वृक्ष का तना दिखते ही उसे सैनिकों व हाथियों की सहायता से बाहर निकालने का प्रयास किया करवाया लेकिन उनसे तना बाहर न निकला। फिर राजा ने प्रजा से भी सैनिको की मदद का आग्रह किया तथा रानी के साथ खुद भी कोशिश करने लगे तभी बहुत ही गरजते हुए आकाशवाणी हुई कि “मेरे पुराने सेवक विश्वावसु, ललिता और विद्यापति को बुलाकर उनसे कहो मुझे स्वर्ण रथ में ले जाए” उसके बाद विश्वावसु, ललिता और विद्यापति ने सहजता और विनम्रता से उसे बाहर निकालकर एवं स्वर्ण रथ पर रख दिया।
अब ओडिशा के बड़े से बड़े और प्रसिद्ध शिल्पकारों को आमंत्रित दिया गया। और श्रीविग्रह का निर्माण करने पर अथाह धन-संपत्ति देने का वादा किया। परंतु जैसे ही उनके औजार तने को लगते वे छिन्न-भिन्न हो जाते। तब एक वृद्ध आये जिन्होंने ने विग्रह निर्माण की जिम्मेदारी ली और कहा 21 दिनों तक इन विग्रहो को पूर्ण रूप दे दूंगा पर मेरे बाहर आने तक द्वार कोई नहीं खोलेगा मैं इन्हे बंद द्वार में ही रूप दूँगा। उससे पूर्व अगर किसी ने भी द्वार खोला तो मैं कार्य अधूरा ही छोड़ जाऊंगा।
राजा ने शर्त स्वीकार कर उसे पालन का वचन दिया। 14 दिन बाद अंदर से कोई भी आवाज़ आनी बंद हो गयी। इस पर राजा ने चिंतित होकर सोचने लगा कि कहीं बिना खान पान के वृद्ध के प्राण तो नहीं छुट गए? रानी गुण्डिचा ने शर्त तोड़ द्वार खोलने के आदेश दे दिया। द्वार खुलने पर सबने पाया की वृद्ध शिल्पकार कक्ष में नहीं है। लेकिन श्री जगन्नाथ देव(Jagannath Dev), श्री बलदेव(Baaldev), श्री सुभद्रादेवी और श्री सुदर्शन चक्र इन चारों के श्रीविग्रह भी अधूरे विद्यमान थे। उनके आँखें और नाक गोलाकार थीं। उनकी भुजाएं आधी ही बनी हुयी थी। हाथ-पैर भी अभी तक पुरे नहीं बने थे।
राजा को वचन तोड़ने का बहुत दुःख और पश्याताप हुआ और वे दुखी हो कर अपने प्राण त्यागने के इच्छा करते हुए जाने लगे। तभी आकाशवाणी हुई और राजा से कहा की चिंता मत करो, मैं स्वयं भी यही और इसी रूप में प्रकट होना चाह रहा था एवं इन विग्रहों को ऐसे ही स्वरूप में मंदिर में स्थापित करो।
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दोस्तों, हमने आपको भगवान नील माधव से जगन्नाथ बनने तक की कहानी इस आर्टिकल में बताई है। उम्मीद करते है आपको ये कहानी अच्छी लगी होगी। कृपया आप इस आर्टिकल को शेयर जरूर करे।
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